Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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सोफिया ने मि. क्लार्क को जेब से पिस्तौल निकालते और सूरदास को लक्ष्य करते देखा था। उसको जमीन पर गिरते देखकर समझी,घातक ने अपना अभीष्ट पूरा कर लिया। फिटन पर खड़ी थी, नीचे कूद पड़ी और हत्याक्षेत्र की ओर चली, जैसे कोई माता अपने बालक को किसी आनेवाली गाड़ी की झपेट में देखकर दौड़े। विनय उसके पीछे-पीछे उसे रोकने के लिए दौड़े, वह कहते जाते थे-सोफी! ईश्वर के लिए वहाँ न जाओ, मुझ पर इतनी दया करो। देखो, गोरखे बंदूकें सँभाल रहे हैं। हाय! तुम नहीं मानतीं। यह कहकर उन्होंने सोफी का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। लेकिन सोफी ने एक झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर दौड़ी। उसे इस समय कुछ न सूझता था; न गोलियों का भय था, न संगीनों का। लोग उसे दौड़ते देखकर आप-ही-आप रास्ते से हटते जाते थे। गोरखों की दीवार सामने खड़ी थी, पर सोफी को देखकर वे भी हट गए। मि. क्लार्क ने पहले ही कड़ी ताकीद कर दी थी कि कोई सैनिक रमणियों से छेड़छाड़ न करे। विनय इस दीवार को न चीर सके। तरल वस्तु छिद्र के रास्ते निकल गई ठोस वस्तु न निकल सकी।

सोफी ने जाकर देखा तो सूरदास के कंधो से रक्त प्रवाहित हो रहा था, अंग शिथिल पड़ गए थे, मुख विवर्ण हो रहा था, पर आँखें खुली हुई थीं और उनमें से पूर्ण शांति, संतोष और धैर्य की ज्योति निकल रही थी; क्षमा थी, क्रोध या भय का नाम न था। सोफी ने तुरंत रूमाल निकालकर रक्त-प्रवाह को बंद किया और कम्पित स्वर में बोलीं-इन्हें अस्पताल भेजना चाहिए। अभी प्राण है; सम्भव है, बच जाएँ। भैरों ने उसे गोद में उठा लिया। सोफिया उसे अपनी गाड़ी तक लाई, उस पर सूरदास को लिटा दिया, आप गाड़ी पर बैठ गई और कोचवान को शफाखाने चलने का हुक्म दिया।

जनता नैराश्य और क्रोध से उन्मत्ता हो गई। हम भी यहीं मर मिटेंगे। किसी को इतना होश न रहा कि यों मर मिटने से अपने सिवा किसी दूसरे की क्या हानि होगी। बालक मचलता है, तो जानता है कि माता मेरी रक्षा करेगी। यहाँ कौन माता थी, जो इन मचलनेवालों की रक्षा करती! लेकिन क्रोध में विचार-पट बंद हो जाता है। जनसमुदाय का वह अपार सागर उमड़ता हुआ गोरखों की ओर चला। सेवक-दल के युवक घबराए हुए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे; लेकिन उनके समझाने का किसी पर असर न होता था। लोग दौड़-दौड़कर ईंट और कंकड़-पत्थर जमा कर रहे थे। ख्रडहरों में मलबे की क्या कमी! देखते-देखते जगह-जगह पत्थरों के ढेर लग गए।

विनय ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है। आन-की-आन में सैकड़ों जानों पर बन आएगी, तुरंत एक गिरी हुई दीवार पर चढ़कर बोले-मित्रो, यह क्रोध का अवसर नहीं है, प्रतिकार का अवसर नहीं है, सत्य की विजय पर आनंद और उत्सव मनाने का अवसर है।

एक आदमी बोला-अरे! यह तो कुँवर विनयसिंह हैं।
दूसरा-वास्तव में आनंद मनाने का अवसर है; उत्सव मनाइए, विवाह मुबारक!
तीसरा-जब मैदान साफ हो गया, तो आप मुरदों की लाश पर आँसू बहाने के लिए पधारे हैं। जाइए, शयनागार में रंग उड़ाइए। यह कष्ट क्यों उठाते हैं?
विनय-हाँ, यह उत्सव मनाने का अवसर है कि अब भी हमारी पतित, दलित, पीड़ित जाति में इतना विलक्षण आत्मबल है कि एक निस्सहाय, अपंग नेत्रहीन भिखारी शक्ति-संपन्न अधिकारियों का इतनी वीरता से सामना कर सकता है।
एक आदमी ने व्यंग्य-भाव से कहा-एक बेकस अंधा जो कुछ कर सकता है, वह राजे-राईस नहीं कर सकते।

दूसरा-राजभवन में जाकर शयन कीजिए। देर हो रही है। हम अभागों को मरने दीजिए।
तीसरा-सरकार से कितना पुरस्कार मिलनेवाला है।
चौथा-आप ही ने तो राजपूताने में दरबार का पक्ष लेकर प्रजा को आग में झोंक दिया था!
विनय-भाइयो, मेरी निंदा का समय फिर मिल जाएगा। यद्यपि मैं कुछ विशेष कारणों से इधर आपका साथ न दे सका, लेकिन ईश्वर जानता है, मेरी सहानुभूति आप ही के साथ थी। मैं एक क्षण के लिए आपकी तरफ से गाफिल न था!
एक आदमी-यारो, यहाँ खड़े क्या बकवास कर रहे हो? कुछ दम हो तो चलो, कट मरें।
दूसरा-यह व्याख्यान झाड़ने का अवसर नहीं है। आज हमें यह दिखाना है कि हम न्याय के लिए कितनी वीरता से प्राण दे सकते हैं।

तीसरा-चलकर गोरखों के सामने खड़े हो जाओ। कोई कदम पीछे न हटाके, वहीं अपनी लाशों का ढेर लगा दो। बाल-बच्चों को ईश्वर पर छोड़ो।
चौथा-यह तो नहीं होता कि आगे बढ़कर ललकारें कि कायरों का रक्त भी खौलने लगे। हमें समझाने चले हैं, मानो हम देखते नहीं कि सामने फौज बंदूकें भरे खड़ी है और एक बाढ़ में कत्लेआम कर देगी।
पाँचवाँ-भाई, हम गरीबों की जान सस्ती होती है। रईसजादे होते तो हम भी दूर-दूर से खड़े तमाशा देखते।
छठा-इससे कहो, जाकर चुल्लू-भर पानी में डूब मरे। हमें इसके उपदेशों की जरूरत नहीं। उँगली में लहू लगाकर शहीद बनने चले हैं!

ये अपमानजनक, व्यंग्यपूर्ण, कटु वाक्य विनय के उर-स्थल में बाण के सदृश चुभ गए-हा हतभाग्य! मेरे जीवन-पर्यंत के सेवानुराग,त्याग, संयम का यही फल है! अपना सर्वस्व देशसेवा की वेदी पर आहुति देकर रोटियों को मोहताज होने का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का कलंक मेरे माथे से कभी न मिटेगा? वह भूल गए-मैं यहाँ जनता की रक्षा करने आया हूँ, गोरखे सामने हैं। मैं यहाँ से हटा, और एक क्षण में पैशाचिक नर-हत्या होने लगेगी। मेरा मुख्य कर्तव्य अंत समय तक इन्हें रोकते रहना है। कोई मुजाएका नहीं, अगर इन्होंने ताने दिए, अपमान किया, कलंक लगाया; दुर्वचन कहे। मैं अपराधी हूँ, अगर नहीं हूँ, तो भी मुझे धैर्य से काम लेना चाहिए। ये सभी बातें वे भूल गए। नीति-चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है। जहाँ दबना चाहिए, वहाँ दब जाता है; जहाँ गरम होना चाहिए, वहाँ गरम होता है। उसे मानापमान का हर्ष या दु:ख नहीं होता। उसकी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है। वह अविरल गति से, अदम्य उत्साह से उसी ओर बढ़ता है; किंतु सरल, लज्जाशील, निष्कपट आत्माएँ मेघों के समान होती हैं, जो अनुकूल वायु पाकर पृथ्वी को तृप्त कर देते हैं और प्रतिकूल वायु के वेग से छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है, आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव-सम्पन्न प्राणियों के लिए अपना चरित्र-बल ही सर्वप्रधान है। वे अपने चरित्र पर किए गए आघातों को सह नहीं सकते। वे अपनी निर्दोषिता सिध्द करने को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से कहीं अधिक महत्तवपूर्ण समझते हैं। विनय की सौम्य आकृति तेजस्वी हो गई, लोचन लाल हो गए। वह उन्मत्तों की भाँति जनता का रास्ता रोककर खड़े हो गए और बोले-क्या आप देखना चाहते हैं कि रईसों के बेटे क्योंकर प्राण देते हैं? देखिए।

यह कहकर उन्होंने जेब से भरी हुई पिस्तौल निकाल ली, छाती में उसकी नली लगाई और जब तक लोग दौड़े, भूमि पर गिर पड़े। लाश तड़पने लगी। हृदय की संचित अभिलाषाएँ रक्त की धार बनकर निकल गईं। उसी समय जल-वृष्टि होने लगी। मानो स्वर्गवासिनी आत्माएँ पुष्पवर्षा कर रही हों।
जीवन-सूत्र कितना कोमल है! वह क्या पुष्प से कोमल नहीं, जो वायु के झोंके सहता है और मुरझाता नहीं? क्या वह लताओं से कोमल नहीं, जो कठोर वृक्षों के झोंके सहती और लिपटी रहती हैं? वह क्या पानी के बबूलों से कोमल नहीं, जो जल की तरंगों पर तैरते हैं, और टूटते नहीं? संसार में और कौन-सी वस्तु इतनी कोमल, इतनी अस्थिर, इतनी सारहीन है, जिससे एक व्यंग्य, एक कठोर शब्द, एक अन्योक्ति भी दारुण, असह्य, घातक है! और, इस भित्तिा पर कितने विशाल, कितने भव्य, कितने बृहदाकार भवनों का निर्माण किया जाता है!
जनता स्तम्भित हो गई, जैसे आँखों में अंधोरा छा जाए! उसका क्रोधवेश करुणा के रूप में बदल गया। चारों तरफ से दौड़-दौड़कर लोग आने लगे, विनय के दर्शनों से अपने नेत्रों को पवित्र करने के लिए, उनकी लाश पर चार बूँद आँसू बहाने के लिए। जो द्रोही था, स्वार्थी था, काम-लिप्सा रखनेवाला था, वह एक क्षण में देव-तुल्य, त्याग-मूर्ति, देश का प्यारा, जनता की आँखों का तारा बना हुआ था। जो लोग गोरखों के समीप पहुँच गए थे, वे भी लौट आए। हजारों शोक-विह्नल नेत्रों से अश्रु-वृष्टि हो रही थी, जो मेघ की बूँदों से मिलकर पृथ्वी को तृप्त करती थीं। प्रत्येक हृदय शोक से विदीर्ण हो रहा था, प्रत्येक हृदय अपना तिरस्कार कर रहा था, पश्चात्ताप कर रहा था-आह, यह हमारे ही व्यंग्य-बाणों का, हमारे ही तीव्र वाक्य-शरों का पाप-कृत्य है। हमीं इसके घातक हैं, हमारे ही सिर यह हत्या है! हाय! कितनी वीर आत्मा,कितना धैर्यशील, कितना गम्भीर, कितना उन्नत-हृदय, कितना लज्जाशील, कितना आत्माभिमानी, दीनों का कितना सच्चा सेवक और न्याय का कितना सच्चा उपासक था, जिसने इतनी बड़ी रियासत को तृणवत् समझा और हम पामरों ने उसकी हत्या कर डाली; उसे न पहचाना!
एक ने रोकर कहा-खुदा करे, मेरी जबान जल जाए। मैंने ही शादी पर मुबारकबादी का ताना मारा था।
दूसरा बोला-दोस्तो, इस लाश पर फिदा हो जाओ, इस पर निसार हो जाओ, इसके कदमों पर गिरकर मर जाओ।
यह कहकर उसने कमर से तलवार निकाली, गरदन पर चलाई और वहीं तड़पने लगा।
तीसरा सिर पीटता हुआ बोला-कितना तेजस्वी मुख-मंडल है! हा, मैं क्या जानता था कि मेरे व्यंग्य वज्र बन जाएँगे!
चौथा-हमारे हृदयों पर यह घाव सदैव हरा रहेगा, हम इस देवमूर्ति को कभी विस्मृत न कर सकेंगे। कितनी शूरता से प्राण त्याग दिए, जैसे कोई एक पैसा निकालकर किसी भिक्षुक के सामने फेंक दे। राजपुत्रों में ये ही गुण होते हैं। वे अगर जीना जानते हैं, तो मरना भी जानते हैं। रईस की यही पहचान है कि बात पर मर मिटे।

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